Monday, 6 November 2023

दुविधा

जाना भी चाहु
पर तुझसे दुर भी न रह पाऊं
कैसी दुविधा हैं यह

वहा रह कर भी
तुझको ही देखना चाहु
कैसी दुविधा हैं यह

होती हूं पास तेरे तो
वहा जाना चाहु
आखिरकार घर हैं मेरा
जहा पली बढ़ी हूं में

पर लगता हैं मेरा कोई घर नहीं
न मैं यहां की हो पाऊं
न वहा की हो पाऊं
समझ नही आता
चाहता क्या हैं यह मन

लगता हैं
आजकल की
मेरा घर अब और कही नहीं
बस तुझमें ही हैं

कैसी यह दुविधा हैं
जो मन को घेरे हुए हैं

क्या सबके साथ ऐसे ही होता हैं??


2 comments:

  1. Sometimes I also feel this. So much confused about everything. Well explained through the poem Dear Sonu👏

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